प्रकाशित 2025-10-24
संकेत शब्द
- सृजनात्मक क्षमताओं,
- देवबंद,
- बहु-सांस्कृतिक समाज के विद्यालयों पर प्रभाव
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सार
शिक्षा मनुष्य की सृजनात्मक क्षमताओं की विभिन्न संभावनाओं को खोजने हेतु उसे निरंतर प्रेरित करती है। एक सांस्कृतिक प्रक्रिया के रूप में शिक्षा के लक्ष्य, उद्देश्य आवश्यक तौर पर मानव की इस सृजनात्मकता से जुड़े रहते हैं। शिक्षा की इस प्रक्रिया में भाग लेने वाले विभिन्न सदस्यों (छात्र, अध्यापक, प्रबंधक अथवा समुदाय के अन्य सदस्य) का संबंध भी अपने सृजनात्मक विकास हेतु अपनी संस्कृति से जुड़ा होता है। प्रायः यह संबंध बहु-आयामी होता है। शिक्षा और संस्कृति दोनों एक-दूसरे को निरंतर प्रभावित करते रहते हैं।
डीवी कहते हैं कि विद्यालय एक लघु समाज है और समाज एक महाविद्यालय है। ये दोनों परस्पर भिन्न प्रतीत होते हुए भी मूलतः अभिन्न हैं। एक शिक्षक, समाज का एक सदस्य होता है। एक अभिभावक, समाज का एक सदस्य होता है। एक विद्यार्थी भी समाज का एक सदस्य होता है। कई चार ये हमें भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं। परंतु ये एक व्यापक फलक के अंग ही हैं, जैसे दृष्टिहीनों का हाथी कोई उसका कान पकड़ता है, कोई उसकी पूंछ पकड़ता है और कोई उसका पैर पकड़ता है। परंतु वह मूलतः हाथी ही है। विभिन्न पक्षों और अंगों से मिलकर ही हाथी का निर्माण होता है। अलग-अलग वह अस्तित्व-विहीन है। इसी प्रकार समाज का भी विभिन्न अंगों से मिलकर निर्माण होता है। समाज के अंर्गो को अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता। उनका अस्तित्व सामूहिकता में है। शिक्षा का जो मूल है, वही अन्ततः समाज के लिए, समाज के सदस्य के लिए और समाज के सदस्यों के द्वारा ही होता है। डुप्रीज और डुमा (2006) कहते हैं कि समाज का विद्यालय पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। समाज में उपस्थित असमानता का प्रभाव विद्यालय में भी देखने को मिल सकता है। इसकी पड़ताल करने के लिए प्रस्तुत शोध की रूपरेखा तैयार की गई है। यह शोध पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक बहु-सांस्कृतिक नगर देवबंद में किया गया है। समय और शोधकर्ता की सीमाओं के चलते बहु-सांस्कृतिक समाज के विद्यालयों पर प्रभाव को देखने के लिए केवल विद्यालय की दीवारों पर वहाँ के समाज का क्या प्रभाव पड़ रहा है, यह देखने का प्रयास किया गया है।